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सातवाहन वंश का इतिहास (Satvahan Vansh History in Hindi)

Posted on March 9, 2022

पुराणों से मिले साक्ष्यों पर गौर करें तो हमें यह पता चलता है कि सातवाहन वंश का मूल उद्भव स्थान आंध्र प्रदेश को माना जाता है। हालांकि इतिहासकारों के बीच सातवाहन वंश के राजाओं के मूल निवास को लेकर भी मतभेद है। कुछ इतिहासकार इन्हें डेक्कन प्रदेश का ही मानते हैं जबकि कुछ इतिहासकार इन्हें पश्चिमी भारत यानी महाराष्ट्र के पुणे नासिक के आसपास के इलाकों का मानते हैं।

सातवाहन वंश से जुड़े शिला शिला लेख मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के पुणे के आसपास के इलाकों से से भी प्राप्त हुए हैं जिनमें सातवाहन वंश के राजाओं को पश्चिमी भारत का मूल निवासी बताया गया है। जिसमें सातवाहन राजाओं के शिलालेखों से पता चलता है कि ये राजा शुंग और कर्ण वंश के राजाओं की तरह ही ब्राह्मण थे।

सातवाहन कौन थे? (Satvahan Kaun the in Hindi?) :

भारत में मौर्य वंश की स्थापना के बाद मगध साम्राज्य सबसे शक्तिशाली महाजनपद बन गया था। अशोक महान के बाद मौर्य वंश में कई सारे शासक हुए लेकिन उनकी अकुशलता की वजह से मौर्य साम्राज्य कई हिस्सों में बंट कर बिखर गया। ऐसा माना जाता है कि सातवाहन वंश मौर्य और शुंग वंश के बाद अस्तित्व में आया लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्यों की मानें तो सातवाहन वंश की स्थापना मौर्य वंश के पतन से पहले ही हो गयी थी। सातवाहन वंश दक्षिण भारत से शुरू होकर पुराणों के अनुसार उत्तर भारत तक फैल गया।

कुछ इतिहासकर सातवाहन राजाओं को मौर्यों का ही उत्तराधिकारी मानते हैं। दक्षिण भारत में सातवाहन साम्राज्य सबसे प्राचीन और मज़बूत साम्राज्य माना जाता है। उत्तर भारत मैं मौर्य साम्राज्य के पतन के कई वर्षों पहले ही दक्षिण में सातवाहन साम्राज्य अपनी मज़बूत पकड़ बना चुका था।
एक तरफ जहां उत्तर भारत में मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद कई सारे छोटे बड़े नए राजा बने जिन पर समय-समय पर कुषाण, कण्व और शुंग राजाओं ने कुछ समय के लिए शासन किया।

वहीं दूसरी तरफ दक्षिण भारत में सातवाहन वंश के राजाओं ने एक ऐसे महान और सुदृढ़ साम्राज्य की स्थापना की जो अटूट और अविभाज्य था। सातवाहन वंश के राजाओं ने अपना साम्राज्य दक्षिण भारत से फैलाना शुरू किया और इस महान साम्राज्य ने भारत में चार सौ से भी ज़्यादा वर्षों तक शासन किया।

क्षेत्रफल के हिसाब से देखा जाए तो सातवाहनों का राज्य मगध साम्राज्य से कई गुना छोटा था लेकिन जिस तरीके से मगध साम्राज्य अलग-अलग टुकड़ों में बिखर कर कमजोर हो गया उसके उलट सातवाहन साम्राज्य इतना मज़बूत था की यह वंश चार सौ वर्षों से भी ज़्यादा के लंबे समय तक पश्चिम और दक्षिण भारत पर राज करते रहे।

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सातवाहन वंश के ऐतिहासिक स्त्रोत (Historical sources of Satvahan Vansh in Hindi) :

यह बहुत ही दुख की बात है कि सातवाहन वंश के राजाओं ने इतने लंबे समय तक राज किया लेकिन अपने राज्य के प्रमाण के रूप में बहुत ही कम चीज़े छोड़ कर गए। और जो प्रमाण मिलते भी हैं उनके ऊपर भी इतिहासकार एकमत नहीं है। इतिहासकारों को सातवाहन काल से संबंधित सिर्फ उन्नीस शिलालेख ही मिले हैं जिनमें सातवाहन या शकर्णी शब्द का प्रयोग बार बार हुआ है। इन शिलालेख में कहीं पर भी आंध्र शब्द का वर्णन नहीं मिलता है। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि आंध्र प्रदेश सात वाहनों की जन्मभूमि रही होगी या नहीं।

इस मामले में कुछ विद्वान यह मानते हैं कि सातवाहन डेक्कन पठार के पश्चिमी हिस्सों से निकलकर आंध्र प्रदेश तक फैले। Satvahan Vansh की सबसे बड़ी कमी यही कही जा सकती है कि इससे जुड़े ऐतिहासिक साक्ष्य बहुत ही कम है और जो मिले हैं जो साक्ष्य मिले हैं उनसे हमें Satvahan Vansh की कोई खास जानकारी नहीं मिलती।

सातवाहन काल के सबसे बड़े साक्ष्यों के रूप में मध्य प्रदेश, पूर्वी डेक्कन और पशिमी डेक्कन से मिले सिक्कों को ही सबसे बड़ा स्रोत माना जा सकता है। लेकिन ज्यादातर सिक्के हमें निराश ही करते हैं क्योंकि इन सिक्कों में से कुछ या तो टूटे हुए हैं और कुछ के जाली होने की आशंका है।

सातवाहन वंश का कालक्रम (Chronology of Satvahan Vansh in Hindi) :

सातवाहन वंश निराशाजनक रूप से अपर्याप्त जानकारियों की वजह से भारत के इतिहास में अपना इतना महत्व नहीं रखता जितना कि रखना चाहिए था। इनके मूल निवास, इनके साम्राज्य से जुड़ी हुई जानकारियों को लेकर इतिहासकारों में जबरदस्त मतभेद है और यही मतभेद इनके कालकर्म लेकर भी मौजूद है। ऐतरेय ब्राह्मण नामक ग्रंथ जो कि पांच सौ ईसा पूर्व में लिखा गया था,

यह बताता है कि आंध्र में रहने वाले लोग एक ऐसी प्रजाति से संबंध रखते हैं जिन्होंने अपने नेता सिमुक के नेतृत्व में खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया। इस प्रकार पुराणों से मिले साक्ष्यों से पता चलता है कि आंध्र और इसके आसपास के प्रदेश में इसी वंश का राज्य था जिसके लगभग तीस राजाओं ने मिलकर चार सौ साठ वर्षों से भी ज्यादा तक शासन किया था, इसलिए हम यही मानते हैं कि वे आंध्र शासक और कोई नहीं बल्कि सातवाहन राजा ही थे।

कुछ दूसरे पुराण थोड़ी अलग कहानी बताते हैं जिनके मुताबिक सिमुक नाम के एक व्यक्ति ने Satvahan Vansh बनाया और उसने कण्व वंश के राजा सुश्रमन को मार कर शुंग और कण्व दोनों वंशों के राजाओं को मारकर इनका खात्मा कर दिया।

सातवाहन वंश के प्रमुख शासक (Major Rulers of the Satvahan Vansh in Hindi) :

Satvahan Vansh के बारे में ऐतिहासिक प्रमाण और साक्ष्य भले ही मतभेद पैदा करने वाले हों लेकिन Satvahan Vansh के राजाओं ने अपने शौर्य और अपनी चतुराई से जिस तरीके से एक अटूट साम्राज्य को बनाया था वह अपने आप में ही एक अनोखा उदाहरण है तो आइए जानते हैं कुछ प्रमुख सातवाहन राजाओं के बारे में :

सिमुक सातवाहन :

इतिहासकार निर्विवाद रूप से सिमुक को Satvahan Vansh का संस्थापक मानते हैं। पुराणों की बात माने तो जब कण्व वंश के राजाओं को शुंग वंश के हाथों खत्म होना पड़ा तो जो भी बचे खुचे शासक थे उनका विनाश करके सिमुक ने दो सौ पैतीस ईसा पूर्व में एक नए वंश की स्थापना की जिसे उसने सातवाहन नाम दिया। अपने शासनकाल के दौरान सिमुक ने कई बौद्ध और जैन मंदिरों को बनवाया लेकिन कुछ समय बाद वह बहुत क्रूर और भ्रष्ट हो गया जिसकी वजह से उसकी हत्या कर दी गई।

कान्हा सातवाहन :

अपने भाई सिमुक की मौत के बाद कान्हा जिसे इतिहासकार कृष्ण भी कहते हैं, ने Satvahan Vansh सिंहासन पर अट्ठारह वर्षों तक शासन किया, जिसमें उसने अपने Satvahan Vansh के साम्राज्य को बढ़ाने पर ज्यादा जोर दिया। पुणे के पास नासिक से मिले एक शिलालेख से पता चलता है कि कान्हा के बाद उसका बेटा शतकर्णी प्रथम ने Satvahan Vansh का सिहासन संभाला।

शतकर्णी प्रथम :

इतिहासकार शतकर्णी प्रथम के पिता के बारे में एकमत होते नहीं दिखाई देते हैं। कुछ इतिहासकार कान्हा को इसका पिता मानते हैं जबकि कुछ इतिहासकार सिमुक को शतकर्णी प्रथम का पिता मानते हैं। पुणे के पास मिले एक शिलालेख से पता चलता है कि कान्हा-पुत्र ने ही सबसे पहले ‘शतकर्णी’ शब्द का प्रयोग अपने लिए किया।

इस शिलालेख से यह भी पता चलता है कि शतकर्णी प्रथम ने अपने छोटे से शासनकाल के दौरान एक राजसूय यज्ञ और दो अश्वमेध यज्ञ भी करवाए थे। शतकर्णी प्रथम की मौत के बाद उसके दो छोटे बेटे जिसमें से एक की बचपन में ही मौत हो गई थी और दूसरे को गद्दी सौंपी गई लेकिन छोटी उम्र होने की वजह से शतकर्णी प्रथम की पत्नी जिसका नयनिका या नागरिका था, ने शासन का कार्य सम्भाला।

शतकर्णी द्वितीय :

शतकर्णी द्वितिय ने एक सौ छियासठ ईसा पूर्व में Satvahan Vansh की गद्दी पर बैठा । इसका वर्णन हाथीगुंफा के शिलालेखों में मिलता है। शतकर्णी द्वितीय के बारे में अभी ज्यादा जानकारी नहीं मिलती है लेकिन पुराणों के अनुसार शतकर्णि के बाद लंबोदर और उसके बाद उसका बेटा अपीलक राजा बना।

गौतमीपुत्र शतकर्णी :

गौतमीपुत्र शतकर्णी को Satvahan Vansh का सबसे शक्तिशाली राजा माना जाता है। गौतमीपुत्र शतकर्णी ने अपने शासनकाल के शुरुआती उठापटक वाले समय को और अपने पूर्ववर्ती सातवाहन शासकों की खोई हुई प्रतिष्ठा और सम्मान को वापस हासिल करने की कसम खाई। गौतमीपुत्र शतकर्णि ने अपने चौबीस वर्षों के शासनकाल के दौरान अपने Satvahan Vansh की खोई हुई प्रतिष्ठा तो हासिल की ही, साथ-साथ अपने साम्राज्य को विशाल और मज़बूत भी किया। इनकी माता गौतमी बालश्री के लिखवाए हुए नासिक शिलालेखों से इनके शासनकाल की संपूर्ण जानकारी मिलती है।

इन्होंने भारत के शासकों को एकजुट किया और पूरे भारत को विदेशी आक्रमणकारियों से बचाया। गौतमीपुत्र शातकर्णी का वर्णन आक्रमणकारियों के विनाशक के रूप में किया गया है। शक शासकों द्वारा छीन लिए गए अपने सारे इलाके गौतमीपुत्र शतकर्णी ने वापस हासिल कर लिए। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार हमें यह जानकारी मिलती है कि गौतमीपुत्र शतकर्णी ने अपने शासनकाल के अंतिम सालों में अपने बहुत सारे इलाके शक आक्रमणकारियों के हाथों गंवा दिए और इसके बाद रुद्रदामन ने वह सारे इलाके शकों से छीन लिए।
गौतमीपुत्र शतकर्णी की मृत्यु एक सौ दो इस पूर्व में हुई मानी जाती है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि Satvahan Vansh ना सिर्फ एक बहुत ही शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में उभरा लेकिन Satvahan Vansh भारत के इतिहास को राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक जैसे कई क्षेत्रों में अभूतपूर्व उपलब्धियां भी प्रदान की। हमें आशा है आपको हमारी Satvahan Vansh पोस्ट बहुत ही ज्ञानवर्धक और रोचक लगी होगी।

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