राजस्थान अपने गौरवशाली इतिहास, महान वीरों और बहादुर राजाओं के शौर्य और बलिदान की वजह से विश्व इतिहास में अपना अलग स्थान रखता है। यहां के वीर राजपूतों को किसी परिचय की ज़रूरत नहीं है। यहाँ महाराणा प्रताप, महाराणा सांगा, महाराणा कुम्भा से लेकर राव जोधा, सवाई जयसिंह जैसे वीर पैदा हुए हैं। और अगर बात करें ऐतिहासिक कहानियों की तो बहुत सी कहानियां ऐसी हैं जिनके बारे में कम ही लोग जानते हैं। हम आपके लिए आज ऐसी ही एक कहानी ले कर आए हैं। जालोर के राजकुमार विरम देव और अलाऊदीन खिलजी की बेटी फ़िरोजा की प्रेम कहानी तो आइए जानते हैं क्या है वो कहानी…
हम सब जानते हैं कि कैसे पद्मावती की सिर्फ एक झलक पा कर अल्लाउद्दीन उन्हें हासिल करने के लिए पागल हो गया था। ठीक उसी तरह अलाउद्दीन की बेटी भी एक राजपूत राजकुमार के प्रेम में पड़कर उन्हें हासिल करने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थी।
कौन थी वो? क्या ये प्रेम कहानी परवान चढ़ी? या फिर उसका प्रेम भी रह गया उसके सपनों की तरह अधूरा…
ये कहानी है मुग़ल बादशाह अलाऊदीन खिलजी की बेटी फ़िरोजा और जालोर के राजकुमार विरम देव की।
बात कुछ इस तरह है कि उस समय के जाबालिपुर कहे जाने वाले आज के जालोर में उस समय सोनिगरा वंशीय चौहानों का राज हुआ करता था।उस समय वहाँ राजा कान्हड़ देव चौहान का शासन था। कान्हड़ देव के बेटे राजकुमार विरम देव सुंदर, समझदार, युद्ध शास्त्र में माहिर एक बहुत ही ताकतवर और कुशल योद्धा के रूप में बड़े हुए थे।
1297 ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी की सेना गुजरात अभियान पर निकली। उसकी नज़र काफी वक्त से गुजरात के बंदरगाहों पर थी क्योंकि इन्हीं बंदरगाहों से भारत का सीधा व्यापार पश्चिमी देशों से होता था। अलाउद्दीन इन बंदरगाहों पर अपना कब्जा जमाना चाहता था। इसके लिए उसने एक विशाल सेना गुजरात विजय के लिए तैयार की। इसे ही अलाउद्दीन खिलजी का गुजरात अभियान कहते हैं। दिल्ली से गुजरात पहुँचने के लिए उस समय सबसे सीधा रास्ता राजस्थान के जालोर से होकर जाता था।
अलाउद्दीन ने कान्हड़ देव को उसकी सेना को जालोर से होकर जाने देने के लिए एक आदेश भिजवाया लेकिन कान्हड़ देव के मना करने पर उन्हें दूसरे रास्ते से गुजरात जाना पड़ा। जब अलाउद्दीन खिलजी की सेना गुजरात में लूटपाट मचा कर और उस वक़्त के गुजरात के सबसे बड़े आकर्षण सोमनाथ मंदिर को लूट कर वापस आ रही थी
तब सोमनाथ के मंदिर में हुए कत्लेआम से गुस्साए और अलाउद्दीन की इस हरकत का बदला लेने और उसे सबक सिखाने के लिए कान्हड़ देव ने अलाउद्दीन की लौटती हुई सेना पर एक भीषण आक्रमण किया और सोमनाथ मंदिर से लुट कर लाए हुए सामान और पवित्र शिवलिंग को अपने जालोर किले में स्थापित करवा दिया।
उस वक़्त तक अलाऊद्दीन का ध्यान सिर्फ और सिर्फ रणथम्भोर और चित्तोड़ को विजय करने पर ही केंद्रित था और जब उसने आख़िरकार इन दोनों किलों को अपने कब्जे में कर लिया तब उसे जालोर का ध्यान आया।
फिर क्या था, उसने अपनी एक भारी सेना जालोर भेजी लेकिन कान्हड़ देव और राजकुमार विरम देव के शौर्य के आगे उसकी सेना पस्त हो गई। इस लड़ाई का कोई मतलब न निकलता देख उसने अपनी नई रणनीति के तहत कान्हड़ देव के पास अपना शांति प्रस्ताव भेजा। दोनों ने उसका शांति प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और ये युद्ध टाल दिया लेकिन बदले में कान्हड़ देव और राजकुमार विरम देव ने अलाउद्दीन के दिल्ली दरबार में उपस्थित होने के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया।
दिल्ली पहुंच कर कान्हड़ देव को वहां अपमानित किया गया और वो वहां से चले आये लेकिन जालोर के राजकुमार विरम देव अलाउद्दीन की सेना की ताकत और उसकी कमज़ोरियों का पता लगाने के लिए वहीं रुक गए। और यहीं पर वीरम देव को अलाउद्दीन की बेटी फ़िरोजा (कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अलाउद्दीन खिलजी की कोई बेटी नहीं थी।
फ़िरोज़ा अलाउद्दीन की सबसे प्रिय दासी की बेटी थी। फ़िरोज़ा एक दासीपुत्री थी। लेकिन तकनीकी रूप से देखा जाए तो थी तो वो अलाउद्दीन की ही बेटी। और अलाउद्दीन ने उसे अपने दरबार में खास ओहदा इसलिए दिया हुआ था क्योंकि वह एक बहुत ही अच्छी राजनीतिज्ञ और उतनी ही बुद्धिमान थी। फ़िरोज़ा ने अपनी अलग पहचान अपने लेखन से बनाई थी और यही वजह थी कि वो अलाउद्दीन के लिए सबसे प्रिय थी!)।
फ़िरोज़ा ने जालोर के राजकुमार विरम देव को पहली बार यहीं दिल्ली दरबार में देखा था और देखते ही वो वीरम देव पर मोहित हो गई थी। वीरम देव वहां दिल्ली में कुछ महीने ही रुके और जब तक वो वहां थे फ़िरोजा पूरी तरह उन पर फिदा हो गई थी। राजकुमार विरम देव के वहां से जाने के बाद फ़िरोज़ा ने तो जैसे ज़िद ही पकड़ ली थी की निकाह करूँगी तो सिर्फ और सिर्फ वीरम देव से ही करूँगी वरना किसी से नहीं करूंगी।
अपनी प्रिय बेटी फ़िरोज़ा की ज़िद के आगे आख़िरकर अलाउद्दीन को झुकना ही पड़ा। बहुत सोचने के बाद उसे एक उपाय सूझा। उसने इस मौके का राजनैतिक फायदा उठाने और इसकी आड़ में अपनी हार का बदला लेने की सोची।
उसने जालोर में कान्हड़ देव के पास फ़िरोज़ा और राजकुमार विरम देव की शादी का प्रस्ताव भेजा लेकिन वीरम देव ने ये कह कर उसे सिरे से ठुकरा दिया कि एक तुर्क लड़की से शादी करना तो दूर इस बारे में सोचना भी उसकी शान और चौहान वंश के खिलाफ है।
अलाउद्दीन ने ऐसे जवाब की उम्मीद तो बिल्कुल नहीं की थी। गुस्से से आगबबूला होकर उसने जालोर पर एक बहुत बड़ी सेना लेकर आक्रमण कर दिया। राजस्थान के ऐतिहासिक साक्ष्यों से ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि अलाउद्दीन की सेना पूरे एक साल तक जालोर पर घेरा डाल कर बैठी थी। इसका कोई हल न निकलता देख, अंत में कान्हड़ देव और उनके राजपूत वीरों ने आमने सामने की लड़ाई का ऐलान कर दिया।
राजपूत विरांगनाओं ने जौहर किया और राजकुमार विरम देव ने 22 साल की छोटी सी उम्र में ही वीरगती पाई।
तुर्क सैनिक राजकुमार विरम देव का कटा सर लेकर फ़िरोज़ा के पास आए इस उम्मीद से की एक मुग़ल सुल्तान के आदेश की अवहेलना करने वालों का हम यही हश्र करते हैं। लेकिन इसका तो फ़िरोज़ा पर कुछ और ही असर हुआ।
उसे अपने प्रिय राजकुमार विरम देव को यूं इस हाल में देखना पड़ेगा, इसकी उसने अपने सपनों में भी उम्मीद नहीं कि थी। इस घटना ने फ़िरोज़ा को पूरी तरह तोड़ दिया।
राजसी शानोशौकत से अब उसे अब घृणा हो गई। फ़िरोज़ा ने पूरे रीति रिवाजों के साथ राजकुमार विरम देव के सर का अंतिम संस्कार किया और उसे एक ऐसे शोक ने घेर लिया जिसकी कोई सीमा नहीं थी।
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अपने दुख से उबरने का उसको कोई रास्ता नज़र नहीं आया। हर बीतते दिन के साथ उसका दुख बस और गहरा होता चला गया। लेकिन कहते हैं ना हर चीज़ को सहने की एक सीमा होती है और जब फ़िरोज़ा के लिए अपना दुख सहना उसके बस में नहीं रहा तब अपने टूटे हुए दिल और खो चुकी खुशियों के साथ आखिरकार उसने यमुना नदी में कूद कर अपनी जान दे दी और फ़िरोज़ा की ये अधूरी प्रेम कहानी उसके साथ ही खत्म हो गई। अलाउद्दीन अपनी प्यारी बेटी के ऐसे फैसले से हिल गया और शायद तब उसे पहली बार ये महसूस हुआ कि जंग ही हर चीज़ का हल नहीं होता है।
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