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राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति और इतिहास (History of Rajasthani Language in Hindi)

राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य है और यहां के लोगों की मातृभाषा राजस्थानी है। भाषा विज्ञान के अनुसार राजस्थानी भाषा भारत और यूरोपीय भाषा परिवार से सम्बन्धित है। राजस्थानी भाषा का इतिहास बड़ा ही गौरवमयी रहा है। इस पोस्ट में हम राजस्थानी भाषा के उद्गम, इसकी उत्पत्ति और इसकी प्रमुख बोलियों की चर्चा करेंगे।

राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति (Origin of Rajasthani Language in Hindi) :

राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति शूरसैनी के गुर्जर अपभ्रंश से हुई मानी जाती है। कुछ विद्वान राजस्थानी भाषा को नागर अपभ्रंश से उत्पन्न हुआ भी मानते हैं। उद्यतन सूरी के ग्रंथ कुवलयमाला में अट्ठारह देशी भाषाओं का वर्णन मिलता है। इसमें से एक मरु भाषा भी है जो पश्चिमी राजस्थान की भाषा हुआ करती थी।

इसी तरह पिंगल शिरोमणि और अबुल फज़ल की आईना-ए-अकबरी में भी मारवाड़ी शब्द का प्रयोग किया गया है। राजस्थान की भाषा के लिए ‘राजस्थानी’ शब्द सबसे पहले जॉर्ज अब्राहम गियर्सन ने 1912 में लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया (Linguistics Survey of India) ग्रंथ में प्रयुक्त किया। इसमें गियर्सन ने प्रदेश में बोली जा रही सभी भाषाओं के लिए एक सामूहिक नाम दिया था। यह नाम प्रदेश की भाषा के लिए मान्य किया जा चुका है। केंद्रीय साहित्य अकादमी ने भी राजस्थानी भाषा को एक स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दे दी है लेकिन अभी इसे संवैधानिक मान्यता प्राप्त नहीं हुई है।

राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण (Classification of Rajasthani Language in Hindi)

डॉक्टर जॉर्ज अब्राहम गियर्सन वह पहले इंसान थे जिन्होंने अपनी पुस्तक लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के दूसरे भाग में राजस्थानी भाषा का स्वतंत्र भाषा के रूप में वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया था। इन्होंने राजस्थानी भाषा की पांच उपशाखाओं के बारे में भी जो इस प्रकार हैं :

  1. पश्चिमी राजस्थानी में मारवाड़ी, मेवाड़ी, शेखावाटी और बागड़ी।
  2. मध्य – पूर्वी राजस्थानी भाषा में हाड़ौती और ढूँढाड़ी
  3. उत्तरी – पूर्वी राजस्थानी में अहिरावटी और मेवाती
  4. दक्षिणी – पूर्वी राजस्थानी में मालवी और निमाड़ी
  5. दक्षिण राजस्थानी

ये भी पढ़े –

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राजस्थान की प्रमुख बोलियां (Rajasthani Language in Hindi) :

राजस्थान अपने यहां पर राजस्थानी भाषा की अलग-अलग बोलियों की वजह से जाना जाता है। राजस्थान में जितनी भी बोलियां बोली जाती हैं उनके लिए कहा जाता है कि राजस्थान में हर नौ दस किलोमीटर की दूरी पर बोली में अंतर आ जाता है तो आप इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि राजस्थान में राजस्थानी भाषा की कितनी सारी ऊपर बोलियों का इस्तेमाल किया जाता है। इनमें से कुछ प्रमुख बोलियों का वर्णन हम इस पोस्ट में आगे करेंगे :

मारवाड़ी भाषा (Marwadi Bhasha in Hindi) :

उद्योतन सूरी के ग्रंथ कुवलयमाला में जिस भाषा को मरु भाषा कहा गया है वह यही मारवाड़ी है। मारवाड़ी का ही प्राचीन नाम मरु भाषा था जिसे पश्चिमी राजस्थान की प्रधान बोली माना गया था। मारवाड़ी का आरंभ आठवीं शताब्दी से माना जाता है। मारवाड़ी बोली साहित्य और विस्तार दोनों की ही दृष्टि से राजस्थान की सबसे ज़्यादा समृद्ध और महत्वपूर्ण भाषा है। मारवाड़ी बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर, पाली, नागौर, जालौर और सिरोही में बोली जाती है लेकिन मारवाड़ी का सबसे शुद्ध रूप जोधपुर और इसके आसपास के इलाकों में ही बोला जाता है।

मेवाड़ी भाषा (Mewadi Language in Hindi) :

उदयपुर और इसके आसपास के इलाकों को मेवाड़ कहा जाता है इसलिए यहां की बोली मेवाड़ी कहलाती है। मारवाड़ी के बाद मेवाड़ी राजस्थान की दूसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली बोली है। मेवाड़ी एक बोली के रूप में बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में बोली जाने लगी। इसका शुद्ध रूप मेवाड़ के गांवों में ही देखने को मिलता है। मेवाड़ी भाषा में भी खूब राजस्थानी साहित्य लिखा गया। राणा कुंभा ने भी अपने कुछ नाटक मेवाड़ी भाषा में ही लिखे थे।

बागड़ी भाषा (Bagri Language in Hindi) :

डूंगरपुर और बांसवाड़ा के इलाकों का प्राचीन नाम बागड़ था इसलिए वहां की बोली भी बागड़ी कहलाई। बागड़ी के ऊपर गुजराती का प्रभाव ज़्यादा देखने को मिलता है। यह भाषा मेवाड़ के दक्षिणी भागों जैसे अरावली के दक्षिणी इलाकों और मालवा के पहाड़ियों तक के क्षेत्रों में बोली जाती है। भील जनजाति के लोग भी मेवाड़ी भाषा ही बोलते हैं।

ढूँढाड़ी भाषा (Dhundhani Language in Hindi) :

जयपुर के उत्तरी इलाकों को छोड़कर बाकी सारे जयपुर, किशनगढ़, लावा, अजमेर, मेरवाड़ा के पूर्वी भागों में बोली जाने वाली भाषा को ढूँढाड़ी ही कहा जाता है। इस भाषा पर मारवाड़ी, ब्रजभाषा और गुजराती का प्रभाव साफ देखने को मिलता है। ढूँढाड़ी भाषा में गद्य और पद्य दोनों रूपों में बहुत सारा साहित्य भी रचा गया है। संत दादू दयाल ने भी ढूँढाड़ी भाषा में ही अपनी रचनाएं लिखी थी। ढूँढाड़ी को झाड़शाही और जयपुरी के नाम से भी जाना जाता है। ‘आठ देस गुजरी’ पुस्तक में ढूँढाड़ी का सबसे प्राचीनतम उल्लेख अट्ठारहवीं शताब्दी में मिलता है।

हाड़ौती भाषा (Hadouti Language in Hindi) :

कोटा, बूंदी, बारां, झालावाड़ के इलाके हाड़ा राजपूतों के साम्राज्य के अंतर्गत आते थे इसलिए इन इलाकों को हाड़ौती कहा जाने लगा और इसी वजह से यहां की बोली भी हाड़ौती कहलाई। हाड़ौती बोली ढूँढाड़ी की ही एक उपबोली है। एक उपबोली के रूप में हाड़ौती का सबसे पहला प्रयोग केलॉग की ‘हिंदी ग्रामर’ में किया गया। इसके बाद अब्राहम गियर्सन ने भी अपने ग्रंथ में हाड़ौती को बोली के रूप में मान्यता दी। सूर्यमल मिश्रण की ज़्यादातर रचनाएं इसी बोली में लिखी गयी हैं।

मेवाती भाषा (Mewati Language in Hindi) :

भरतपुर और अलवर जिलों का इलाका मेवाती जाति के लोगों की अधिकता की वजह से मेवात के नाम से जाना जाता है इसलिए यहां की बोली भी मेवाती कहलाती है। यह बोली अलवर के किशनगढ़, तिजारा, रामगढ़, गोविंदगढ़, लक्ष्मणगढ़ तहसील और भरतपुर की कामा और डिगनगर तहसीलों के पश्चिमी भाग और हरियाणा के गुड़गांव और उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले तक फैली हुई है। मेवाती बोली पर ब्रजभाषा का बहुत प्रभाव देखने को मिलता है।

मालवी भाषा (Malwi Language in Hindi) :

मालवा क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा को मालवी कहते हैं। इस बोली में मारवाड़ी और ढूँढाड़ी दोनों बोलियों की कुछ समानताएं देखने को मिलती हैं। कुछ इलाकों में मालवी के ऊपर मराठी का भी प्रभाव देखने को मिलता है। मालवी एक कोमल भाषा है।

शेखावाटी भाषा (Shekhawati Language in Hindi) :

शेखावाटी को मारवाड़ी की उपबोली माना जाता है। यह शेखावाटी इलाकों जिनमें झुंझुनू, सीकर, चूरू जिलों के क्षेत्र आते हैं, में बोली जाती है। शेखावाटी बोली के ऊपर ढूँढाड़ी और मारवाड़ी का साफ प्रभाव देखने को मिलता है।

गौड़वाड़ी भाषा (Goudwadi Language in Hindi) :

जालौर जिले के आहोर से लगा कर पाली जिले में बोली जाने वाली यह मारवाड़ी की उपबोली है। बीसलदेव रासो मारवाड़ी भाषा की मुख्य रचना है। बालवीर सिरोही खड़ी महा हरीश की उप बोलियां है। बालवी, सिरोही, खणि, महादड़ी आदि इसकी उपबोलियाँ हैं।

अहिरवाटी भाषा (Ahirwati Language in Hindi) :

इसे राठी बोली भी कहा जाता है। आभीर जनजाति के क्षेत्र की बोली होने की वजह से इसे हिरावटी या हिरवाल भी कहा जाता है। इस बोली के इलाके को राठ भी कहा जाता है। इसलिए इसे राठी भी कहते हैं। इसे मुख्य रूप से अलवर और जयपुर के कुछ इलाकों, हरियाणा के गुड़गांव, महेंद्रगढ़, नारनौल, रोहतक जिला और दिल्ली के दक्षिण भाग में बोला जाता है। यह हरियाणा की बांगरू और मेवाती के बीच की बोली है। जोधराज का हम्मीर रासो महाकाव्य,शंकर राव का भीम विलास महाकाव्य, अली बक्शी ख्याल लोकनाट्य आदि की रचनाएं भी इसी बोली में की गई हैं।

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