कुम्भलगढ़ किले का इतिहास | राजस्थान अपने ऐतिहासिक किलों और महलों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। राजस्थान के लगभग हर ज़िले में आपको कोई ना कोई महल या किला तो मिल ही जाएगा। लेकिन आज हम जिस किले की बात करने जा रहे हैं वह अपने आप में किसी अजूबे से कम नहीं है। यूनेस्को की world heritage sites में शुमार इस किले की क्या है कहानी, क्या है कुम्भलगढ़ किले का इतिहास आइये जानते हैं…
कुम्भलगढ़ किले का इतिहास (History of Kumbhalgarh Fort in Hindi)
कुम्भलगढ़ किले का इतिहास बहुत ही अद्भुत है। यह एक ऐसा किला जो हमेशा शत्रु सेनाओं से घिरा रहता था लेकिन बावजूद इसके यह हमेशा सुरक्षित रहा। क्या आपको पता है कुंभलगढ़ किले की सुरक्षा दीवार की लंबाई छत्तीस किलोमीटर लम्बी है जो द ग्रेट वॉल ऑफ चाइना के बाद विश्व में दूसरे नंबर पर आती है। इस किले की दीवारें पंद्रह फीट चौड़ी है जिन पर सात घोड़े एक साथ चल सकते हैं। सुरक्षा के लिहाज से इस किले की बनावट ऐसे की गई थी कि दुश्मन इस किले पर कभी कब्जा नहीं कर पाए। इस किले को महाराणा कुंभा की देखरेख में बनवाया था। इस किले को बनने में 15 साल का लंबा वक्त लगा था।
महाराणा कुंभा ने कुम्भलगढ़ किले का निर्माण मौर्य सम्राट अशोक के बेटे संप्रति के टूट चुके किले के खंडहरों के ऊपर किया था। जब इस वैभवशाली किले का निर्माण पूरा हो गया तब महाराणा कुंभा ने इस विशेष अवसर पर उन्होंने कांस्य के सिक्के बनवाए थे जिस पर इस महल का नाम और इसका चित्र अंकित किया गया था। कुंभलगढ़ का किला अरावली की वादियों में कई छोटे-बड़े पहाड़ों और घाटियों को मिलकर बनाया गया था धूप में उसी जगह पर महल बनाए गए थे और नीचे की समतल जगह को खेती के लिए इस्तेमाल किया जाता था महाराणा कुंभा ने किले के अंदर 360 मंदिर बनवाए थे।
जिसमें से 300 मंदिर जैन मंदिर है और बाकी हिंदू मंदिर है कुंभलगढ़ दुर्ग के अंदर एक और गढ़ है जिसको कटार गढ़ कहा जाता है इस गढ़ की सुरक्षा मजबूत प्राचीन और सांस विशाल दरवाजे करते हैं मेवाड़ राजवंश के लिए इस दुर्ग का स्थान बहुत महत्वपूर्ण था वीर महाराणा प्रताप का जन्म इसी दुर्ग में हुआ था कुंभलगढ़ को मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी माना जाता था
महाराणा राज सिंह के शासन तक मेवाड़ पर जितने भी आक्रमण हुए उन सब के दौरान कुंभलगढ़ ही इनकी राजधानी हुआ करती थी महाराणा सांगा और पृथ्वीराज का बचपन भी इसे किले में बीता था अपने स्वामी से किया हुआ वचन निभाने के लिए अपने बेटे का बलिदान देने वाली अमर पन्नाधाय ने उदय सिंह की रक्षा भी इसी किले में की थी हल्दीघाटी का युद्ध हारने की बाद महाराणा प्रताप भी काफी वक्त तक यही ठहरे हुए थे
लेकिन जो बात सबसे ज्यादा दिलचस्प यह बात है कि महाराणा कुंभा के साम्राज्य में उनके अधीन 84 किलो आते थे जिसमें से 32 किलो का नक्शा उन्होंने खुद बनाया था जिसमें से एक कुंभलगढ़ भी शामिल है इस दुर्ग का निर्माण महाराणा कुंभा की अन्य किलो में से एक कुंभलगढ़ का किला भी शामिल है लेकिन जब किले का निर्माण शुरू हुआ तो कई अड़चनें आई इस बात से महाराणा कुंभा काफी परेशान थे
क्योंकि उन्हें इसका कोई हल नहीं मिल रहा था वह जब भी इसके लिए का निर्माण करवाते कुछ ना कुछ अनहोनी हो जाती इस परेशानी के समाधान के लिए उन्होंने एक संत के पास जाकर उनकी सलाह ली तो उन्हें बताया गया कि अगर एक व्यक्ति अपनी इच्छा से अपनी बलि चढ़ाए तो इस किले का निर्माण कार्य आगे बढ़ सकता है इस बात इस बात में महाराणा को कैसे चिंतित कर दिया
क्योंकि बहुत ढूंढने के बाद भी उन्हें अपने राज्य में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो अपनी इच्छा से अपनी बलि दे तब्बू संत ने खुद अपना बलिदान देने का प्रस्ताव रखा जिसे राणा ने मान लिया संत ने कहा कि उन्हें पहाड़ी पर पैदल अकेले चलने दिया जाए और जहां पर वह रुके वहीं पर उनका वध कर दिया जाए
ये भी पढ़े –
राणा कुम्भा के सैनिकों ने ऐसा ही किया पहाड़ी पर संत 36 किलोमीटर पैदल चले और उसके बाद जैसे ही वह रुके राणा कुंभा के सैनिकों ने उनका सिर धड़ से अलग कर दिया और वहीं पर किले के मुख्य दरवाजा हनुमान पुल का निर्माण करवाया गया और जहां पर उनका शरीर गिरा वहां दूसरा मुख्य दरवाजा बनवाया गया इस विशाल दुर्ग के बनने के बाद से ही इस पर हमले भी शुरू हो गए।
लेकिन सिर्फ एक बार को छोड़कर कुम्भलगढ़ किले का इतिहास में हमेशा अजय रहा इस दुर्ग पर कब्जा करने के इरादे से आए हर शासक का सपना कभी पूरा नहीं हुआ जिस अजय महाराणा कुंभा को हराने की ताकत किसी में नहीं थी उन्हें उनके ही बड़े बेटे उदय सिंह ने राजपाट के लालच में धोखे से मार दिया। क्या थी ये कहानी, जानने के लिए यहां क्लिक करें। हम उम्मीद है आपको कुम्भलगढ़ किले का इतिहास की कहानी पढ़ के अच्छा लगा हो। ऐसी ही कुम्भलगढ़ किले का इतिहास जैसी और कहानी पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट पर विजिट करते रहिये।